New Delhi, 9 अक्टूबर . यह सिर्फ एक पुरस्कार की कहानी नहीं है. यह उस लड़ाई की गवाही है, जो एक इंसान ने उन लाखों बच्चों के लिए लड़ी, जिनकी आवाज कोई नहीं सुनता था. यह कहानी है कैलाश सत्यार्थी की, एक ऐसा नाम, जिसने न सिर्फ बच्चों की आजादी की अलख जगाई, बल्कि दुनिया को यह बताया कि बदलाव की शुरुआत एक अकेले दीये से भी हो सकती है.
10 अक्टूबर 2014, दिन था Friday. दिल्ली के एक-दो कमरों के फ्लैट में कैलाश सत्यार्थी रोज की तरह अपने लैपटॉप पर सस्ते हवाई टिकट तलाश रहे थे. कुछ हफ्तों बाद जर्मनी में एक कार्यक्रम था, तभी अचानक एक पत्रकार का फोन आया, “कैलाश जी, नोबेल प्राइज.”
उन्हें लगा, शायद किसी और के लिए पूछ रहे हैं और गूगल भी जवाब देने में देर कर रहा था. कुछ ही मिनटों में उनके दफ्तर में दौड़ते-भागते सहकर्मी, बेटे-बहू और मीडिया पहुंच गए और फिर आई वह आधिकारिक कॉल, नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा हो चुकी थी और विजेता थे कैलाश सत्यार्थी.
सुबह से रात तक, घर और ऑफिस में मिलने वालों का तांता लगा रहता. उनका परिवार लगभग 20 साल से दिल्ली में अरावली अपार्टमेंट नाम की बस्ती में दो कमरों के मकान में रहता था. घर के बाहर टेंट हाउस से लाकर किराए की कुर्सियां डाल दी गई थीं. फिर भी कुछ दिनों तक तो हमारे जान-पहचान वाले भीतर पुराने सोफे और कुर्सियों के अलावा बिस्तरों पर भी लदे होते थे.
उन्हें विदा करना मुश्किल था जबकि उनसे ज्यादा संख्या में लोग बाहर कुर्सियों पर बैठे रहते थे.
इस दिन से ठीक 8 साल पहले 2006 में, एक अखबार में खबर छपी थी कि कैलाश सत्यार्थी नोबेल के लिए नामित हुए हैं, तब भी पत्रकार जुट गए थे. सबने इंतजार किया, लेकिन उस साल पुरस्कार किसी और को मिला. टीम ने वही दिन शादी की सालगिरह का जश्न मनाने का तय किया था, जो मनाया भी गया, लेकिन सबके दिल में एक हल्की सी कसक रह गई थी.
2014 में वह कसक उम्मीद में बदली. जो इंसान पैंतीस साल से बच्चों को बाल मजदूरी, तस्करी और गुलामी से बचा रहा था, उसे आखिरकार दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार मिल गया था.
नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद ओस्लो में होने वाले भव्य पुरस्कार वितरण समारोह की तैयारियां शुरू हुईं. नोबेल कमेटी ने 10 दिसंबर के पुरस्कार वितरण समारोह से संबंधित व्यवस्थाओं के बारे में बातचीत शुरू कर दी थी. पिता को नोबेल पुरस्कार मिलना था, इसलिए 35 वर्षीय बेटे भुवन ने यह जिम्मेदारी संभाली. ओस्लो में अधिकारियों को इस बात से बड़ी हैरानी हो रही थी कि वे उनसे कोई शर्तें या मांगें नहीं कर रहे थे.
जहां अन्य विजेता सुरक्षा, मीडिया और विशेष मांगों की लंबी सूची देते हैं, वहीं सत्यार्थी परिवार ने महज एक शर्त रखी. यह शर्त थी कि ‘पहली पंक्ति में एक कुर्सी खाली रखी जाए.’ यह खाली कुर्सी उस बच्चे का प्रतीक थी, जिसे दुनिया ने सबसे पीछे धकेल दिया है, लेकिन कैलाश सत्यार्थी उसे सबसे आगे देखना चाहते हैं. यह उनके पूरे संघर्ष का प्रतीक बन गया.
कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबेल पुरस्कार के समय एक मजेदार घटना भी हुई. पुरस्कार समारोह में जब कैलाश सत्यार्थी भाषण देने खड़े हुए तो उनके कुछ पन्ने गुम हो गए, लेकिन मंच पर उनकी मुस्कान और सहजता ने माहौल हल्का कर दिया.
उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘आज नई-नई चीजें हो रही हैं. मेरे पन्ने भी खो गए हैं, लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि आज एक भारतीय को एक Pakistanी बेटी मिली है और एक Pakistanी बेटी को एक भारतीय पिता.”
उन्होंने ऐसा इसलिए भी कहा था कि नोबेल पुरस्कार कैलाश सत्यार्थी को Pakistan की मलाला यूसुफजई के साथ संयुक्त रूप से मिला. पुरस्कार समारोह से एक दिन पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब मलाला Pakistan से जुड़े एक सवाल पर झिझकी, सत्यार्थी ने सहजता से पूछा, “क्या मैं तुम्हें अपनी बेटी कह सकता हूं?” मलाला ने कहा, “हां, अब्बू.”
वह संवाद न सिर्फ दोनों देशों के रिश्तों का एक नया अध्याय बना, बल्कि दुनिया को यह भी दिखा गया कि करुणा और संबंध सीमाओं से नहीं बंधते.
अपने भाषण में उन्होंने एक कहानी सुनाई, “जंगल में आग लगी थी और एक नन्ही चिड़िया अपनी चोंच से पानी भरकर आग बुझाने निकली. शेर ने पूछा, ‘पगली हो गई हो?’ चिड़िया बोली, ‘यह मेरा जंगल है. मैं अपने हिस्से की कोशिश तो कर ही सकती हूं.” यही कैलाश सत्यार्थी की आत्मा है. यही उनका जीवन दर्शन है.
आज, जब हम नोबेल पुरस्कार की उस ऐतिहासिक घोषणा को 11 साल पूरे होते हुए देख रहे हैं, तब सत्यार्थी का जीवन हमें याद दिलाता है कि परिवर्तन सिर्फ Governmentें नहीं लातीं, एक व्यक्ति भी ला सकता है. इसके लिए उनकी आत्मकथा ‘दियासलाई’ सिर्फ एक किताब नहीं, बल्कि एक चेतावनी और एक उम्मीद है. चेतावनी उन लोगों के लिए जो बच्चों का बचपन छीनते हैं, और उम्मीद उन लाखों बच्चों के लिए जिनकी हथेली में अभी कलम की जगह पत्थर हैं.
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डीसीएच/वीसी
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