‘द कश्मीर फाइल्स’ और इसी श्रृंखला की अन्य फिल्मों पर चर्चा करने से पहले, मैं यह बताना चाहता हूँ कि बॉलीवुड में अक्सर देखा गया है कि एक प्रसिद्ध पिता के निधन के बाद, उनकी कम प्रतिभाशाली संतानें आत्मविश्वास के साथ आधी सच्चाई और आधे झूठ का सहारा लेती हैं। हाल ही में गीतकार आनंद बक्षी के बेटे राकेश आनंद बक्षी ने कई मंचों पर यह कहा है कि उनके पिता को इस बात का पछतावा था कि उन्होंने ‘अंधा कानून’ फिल्म के मुस्लिम पात्र जां निसार अख्तर के लिए ‘जितनी चाभी भरी राम ने उतना चले खिलौना’ लिखा। यदि उन्हें पता होता कि वह मुस्लिम पात्र है, तो वे ऐसा गीत नहीं लिखते।
एक सामान्य संगीत प्रेमी के रूप में, हम आशा कर सकते हैं कि राकेश का यह बयान गलत हो। लेकिन यदि यह सच है, तो उन्हें यह समझाना चाहिए कि ‘जितनी चाभी भरी राम ने, उतना चले खिलौना’ एक कहावत है जिसका किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है। यदि वे इसे धर्म से जोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि उन्होंने ‘दोस्ताना’ फिल्म में हिंदू नायक विजय द्वारा अपने दोस्त रवि के लिए ‘खुदा जाने क्या माजरा हो गया’ लिखने की गलती क्यों की।
हिंदू समाज हमेशा उदार और सहिष्णु रहा है। वर्षों से, इस दृष्टिकोण ने समाज में समता और सभी धर्मों का सम्मान सुनिश्चित किया। लेकिन बॉलीवुड ने इस उदारता का लाभ उठाया, कभी अनजाने में तो कभी जानबूझकर। जब तक सिनेमा में सहजता बनी रही, दर्शक उसे स्वीकार करते रहे। लेकिन नब्बे के दशक में अंडरवर्ल्ड का प्रभाव बढ़ने के बाद, एक विशेष योजना के तहत खान त्रयी को बढ़ावा दिया गया और पाकिस्तान से गायकों की एक टीम को बुलाया गया।
विज्ञान का सिद्धांत है कि हर क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। आज हम ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरला स्टोरी’ और ‘द बंगाल फाइल्स’ जैसी फिल्मों की सफलता देख रहे हैं, जो बॉलीवुड द्वारा पिछले पैंतीस वर्षों में चलाए गए एजेंडे की प्रतिक्रिया है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ में 1990 में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार और उनके पलायन का चित्रण है, जबकि ‘द केरला स्टोरी’ में हिंदू युवतियों के धर्मांतरण और उन पर किए गए अत्याचारों की सच्चाई को दर्शाया गया है।
हालांकि, कुछ लोग इस बदलाव को पसंद नहीं कर रहे हैं और इन फिल्मों का विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों में कई राजनीतिक दल, लेखक और छात्र शामिल हैं। यह वही वर्ग है जो ‘गदर’ में सनी देओल द्वारा पाकिस्तान जाकर हैंड पंप उखाड़ने से भी नाराज है।
सवाल यह है कि अचानक सिनेमा में ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों का उदय कैसे हुआ? सिनेमा को कई कलाओं का संगम माना जाता है, लेकिन कोरोनाकाल के दौरान ओटीटी प्लेटफार्मों के उभार ने कथ्य की प्रधानता को उजागर किया। यही कारण है कि कोरोना के बाद कई सफल सीक्वल और उद्देश्यपूर्ण फिल्में दर्शकों द्वारा सराही गईं।
यह स्पष्ट है कि यह वह सिनेमा नहीं है जिसे दर्शक वर्षों से देख रहे हैं। ये फिल्में न तो सिनेमा की कला को मानती हैं और न ही बॉलीवुड की पहचान को स्थापित कर पाती हैं। भविष्य में इसी पैटर्न पर और फिल्में बन सकती हैं, लेकिन उनकी सफलता संदिग्ध है। ‘द बंगाल फाइल्स’ की असफलता यह दर्शाती है कि दर्शक ऐसे समाज की कामना नहीं करते, जैसा इन फिल्मों में दर्शाया गया है।
अंततः, यह हमारे नीति-निर्माताओं पर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार का समाज बनाते हैं और किस प्रकार की फिल्में बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
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